कल्पना कीजिए, आप अपने घर में बैठकर रोजमर्रा की जिंदगी का आनंद ले रहे हैं, और अचानक खबर आती है कि पास के इलाके में सांप्रदायिक हिंसा भड़क गई है। 16 नवंबर 2024 को बेलडांगा के लोगों ने यही अनुभव किया। मुर्शिदाबाद जिले के इस कस्बे में भगवान कार्तिक के पूजा पर हमले ने ऐसा हंगामा खड़ा कर दिया, जो पलभर में पूरे इलाके को हिंसा की आग में झोंक गया। हिंसा इतनी उग्र थी कि सरकार को इंटरनेट सेवा बंद करनी पड़ी ! अब, जरा सोचिए—जब इस इलाके का विधायक भी मुस्लिम हो, सांसद भी मुस्लिम हो, और प्रशासन पर भी पक्षपात का आरोप हो, तो क्या अल्पसंख्यक हिन्दुओं को सुरक्षा और न्याय मिल पाना संभव है? बेलडांगा की इस घटना में हिंदू परिवारों के घर जलाए गए, उनकी संपत्ति लूटी गई, और उन्हें मजबूरन पलायन करना पड़ा। लेकिन इसके बाद जो हुआ, वह और भी चौंकाने वाला था। शिकायतों को नजरअंदाज किया गया, और प्रशासन ने एकतरफा कार्रवाई कर मामला दबाने की कोशिश की।

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स्थानीय पुलिस प्रशासन की अक्षमता की आलोचना करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने द इंडियन एक्सप्रेस (22 नवम्बर 2024) से बातचीत में कहा कि “बेलडांगा की घटना स्थानीय पुलिसकर्मियों की पूरी तरह से विफलता है। घटना सोशल मीडिया पर वायरल हो गई, लेकिन स्थानीय पुलिस न तो स्थिति को तुरंत नियंत्रित कर सकी और न ही दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकी।” आगे अधीर रंजन ने कहा कि “लोकसभा चुनावों से पहले राम नवमी उत्सव के दौरान मुर्शिदाबाद के शक्तिपुर में भी इसी तरह की सांप्रदायिक घटना हुई थी। मेरी राय में, ये दोनों घटनाएं जिले में ध्रुवीकरण पैदा करने की एक बड़ी साजिश का हिस्सा हैं। मुख्यमंत्री, जो हर मुद्दे पर टिप्पणी करती हैं, बेलडांगा और शक्तिपुर की घटनाओं पर उनकी चुप्पी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें कम से कम लोगों के लिए शांति का संदेश जारी करना चाहिए था, लेकिन हमने केवल उनकी चुप्पी देखी।”
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसका जवाब बेलडांगा की जनसांख्यिकी में छुपा है। 2011 की जनगणना के अनुसार, यहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं, और यह संख्या बढ़ रही है। इसका असर चुनावी नतीजों पर भी दिखता है। ऐसे इलाकों में धार्मिक जनसांख्यिकी न सिर्फ राजनीतिक समीकरण बदल रही है, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े कर रही है। क्या आपको लगता है कि बेलडांगा की हिंसा केवल एक सांप्रदायिक घटना है? या यह उस गहरी समस्या का हिस्सा है, जो हमारे लोकतंत्र को खोखला कर रही है? पश्चिम बंगाल के ऐसे इलाके, जहां धार्मिक बहुमत और राजनीतिक सत्ता एकतरफा हैं, वहां अल्पसंख्यकों (जो अब हिंदू हैं) के लिए न्याय की गुंजाइश कितनी बचती है? यह सवाल सिर्फ बेलडांगा का नहीं है, यह सवाल आपके और मेरे जैसे हर नागरिक के लिए है। अगर हम इन घटनाओं पर चुप रहेंगे, तो क्या हम उस लोकतंत्र के प्रति अपने कर्तव्य का पालन कर रहे हैं, जो हमें समानता और न्याय का वादा करता है? या फिर हम एक ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा दे रहे हैं, जहां उन्मादी भीड़ का संख्याबल ही न्याय तय करता है?
जनसंख्या में बदलाव केवल आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि हमारी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर इसका गहरा असर होता है। पश्चिम बंगाल इसका ज्वलंत उदाहरण है। 1951 में राज्य में मुस्लिम जनसंख्या 19.85% थी। ठीक सात दशकों बाद, 2011 की जनगणना ने इसे 27% पर दर्ज किया। अब, 2024 में, विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह संख्या 30% से अधिक हो चुकी है। यह बदलाव केवल प्रतिशतों का बढ़ना नहीं है। पश्चिम बंगाल की जनसांख्यिकी पर एक नजर डालें, तो 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य के कई जिलों में मुस्लिम आबादी का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मुर्शिदाबाद (66.28%), मालदा (51.27%), और उत्तर दिनाजपुर (49.92%) जैसे जिलों में मुस्लिम समुदाय बहुसंख्यक है, जबकि दक्षिण 24 परगना (35.57%), बीरभूम (37.06%), और नादिया (25.41%) जैसे जिलों में भी इनकी मजबूत उपस्थिति है। कोलकाता जैसे महानगरों में भी मुस्लिम जनसंख्या 20.60% है। सीमावर्ती जिलों में, विशेषकर मुर्शिदाबाद और मालदा में, बांग्लादेश से अवैध प्रवासन का बड़ा असर देखा गया है। यह बताता है कि किस तरह मुर्शिदाबाद, मालदा, और उत्तर दिनाजपुर जैसे जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक हो चुकी है। क्या आपको लगता है कि यह केवल प्राकृतिक प्रजनन दर का नतीजा है? या इसके पीछे बांग्लादेश से हो रहे अवैध प्रवासन का बड़ा हाथ है?
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दिसंबर 2023 में सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को बताया कि केंद्र सरकार ने भारत-बांग्लादेश सीमा की सुरक्षा के लिए बहु-आयामी कदम उठाए हैं। पश्चिम बंगाल की 2,217 किमी लंबी सीमा में से केवल 81.5% पर बाड़ लगाई गई है। सॉलिसिटर जनरल ने कहा, "यदि पश्चिम बंगाल सरकार भूमि अधिग्रहण में सहयोग करे और सीमा बाड़बंदी के लिए आवश्यक भूमि सौंपे, तो केंद्र सरकार इसे शीघ्र पूरा कर देगी।" परंतु शेष हिस्सों में जहां अभी भी पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम नहीं हैं, इन असुरक्षित क्षेत्रों में सीमा की "धुंधलाहट" स्थानीय जनसंख्या संतुलन को बिगाड़ने के साथ-साथ राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक-लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी प्रभावित कर रही है। जहां एक ओर मुस्लिम बहुल जिलों में "वोट बैंक" की राजनीति फल-फूल रही है, वहीं दूसरी ओर हिंदू समुदाय धीरे-धीरे सिमटता और असुरक्षित महसूस करता जा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यदि किसी इलाके में मुस्लिम जनसंख्या 20% से अधिक हो जाती है, तो वे वहां सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली भूमिका में आ जाते हैं। पश्चिम बंगाल में कुल 23 जिले है जिसमे लगभग 13 जिलों में मुस्लिम आबादी 20% से अधिक है। इनमे से तीन जिलों में तो मुस्लिम आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है। इन सब जिलों में स्थानीय शासन, राजनीति और सांप्रदायिक मुद्दों पर उनका नियंत्रण स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहाँ पर इस देश के तथाकथित बुद्धिजीवी, सेक्युलर और वामपंथी कभी ये नहीं कहते कि बहुसंख्यकों से अल्पसंख्यकों के धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए। कारण, इनमे से कुछ जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और हिन्दू अल्पसंख्यक है। आज आवश्यकता है कि ‘अल्पसंख्यक किसे कहें’, सरकार इसको स्पष्ट रूप से परिभाषित करे।
बात केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश के लिए चेतावनी है कि अगर समय रहते हमने अपनी जनसँख्या, सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा और प्रवासन नीति पर ध्यान नहीं दिया, तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था जनसांख्यिकी की चालाकी के सामने घुटने टेक देगी। पश्चिम बंगाल का जनसांख्यिकीय बदलाव वहां के लोकतांत्रिक ढांचे को प्रभावित कर रहा है। राजनीति में "मुस्लिम वोट बैंक" का महत्व तेजी से बढ़ा है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप लगते रहे हैं।
उदाहरण के लिए, 2012 में इमामों और मुअज्ज़िनों को मासिक भत्ता देने की घोषणा ने हिंदू समुदाय में असंतोष पैदा किया था। विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष ने सरकार द्वारा अपने कर्मचारियों को दिए जाने वाले भत्तों और बोनस की राशि, समय और तत्परता में भी स्पष्ट भेदभाव की बात कही है। 2021 के विधानसभा चुनावों में यह साफ दिखा कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों ने बड़े पैमाने पर टीएमसी को वोट दिया, जबकि बीजेपी ने हिंदू बहुल क्षेत्रों में अपना आधार मजबूत किया। यह चुनावी ध्रुवीकरण बताता है कि जनसांख्यिकी में बदलाव ने राज्य की राजनीति को कैसे प्रभावित किया है। जनसांख्यिकीय बदलाव के कारण सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ा है। 2017 के बशीरहाट दंगे इसका बड़ा उदाहरण हैं, जब एक सोशल मीडिया पोस्ट पर हिंसा भड़क गई और हिंदू दुकानों और घरों पर हमले हुए। 2021 में कूचबिहार के सिटलकूची में चुनाव के दौरान हुई हिंसा ने दिखाया कि किस तरह जनसांख्यिकी और राजनीति का मिश्रण लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। इस बार कोलकाता और हावड़ा महानगर में दुर्गा पूजा और काली पूजा भी आक्रमणों से अछूते नहीं रहे।
वर्तमान स्थिति में यह कहना गलत नहीं होगा कि कई समस्याओं के बीच एक और गंभीर समस्या यह है कि हिंदू समाज अपनी हर परेशानी के लिए पुलिस, प्रशासन और सरकार पर ही निर्भर हो गया है। धीरे-धीरे, अल्पसंख्यक कहे जाने वाले मुस्लिम समाज की संख्या बढ़कर बहुसंख्यक बनती जा रही है। गांवों में यदि समस्या होती है, तो लोग सुरक्षा की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं या दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर हो रहे हैं।अक्सर लोग यह सोचते हैं कि अगर मैं किसी दूसरी जगह चला जाऊं, तो मेरा परिवार सुरक्षित रहेगा। लेकिन क्या यह वास्तव में कोई समाधान है? जरा सोचिए, जो लोग पूर्व बंगाल से यहां आए, उन्होंने भी यही सोचा था कि यहां उन्हें सुरक्षा और शांति मिलेगी। लेकिन समय के साथ हमने क्या देखा? वहां से आने के बाद पूर्व बंगाल में जो लोग बचे रहे, उनकी संख्या घटती चली गई और उनके ऊपर अत्याचार बढ़ता गया। पश्चिम बंगाल में भी, जिन क्षेत्रों में हिंदू समाज की संख्या कम है, वहां सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक ताकत स्थानीय बहुसंख्यकों के हाथ में चली गई है, या यह कहना सही होगा कि उन्हें मजबूरन सौंपनी पड़ी। अपना अनुभव तो यही कहता है कि लोकतंत्र में संसद भवन हो या सड़क का संघर्ष, जिसकी संख्या अधिक होती है, उसी की ताकत ज्यादा होती है।

(Screenshot of Article published in Swadesh NewsPaper on 24 November 2024)