भारत का लोकतंत्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है, और इसकी नींव केवल संस्थाओं या प्रक्रियाओं पर नहीं, बल्कि उन नागरिकों पर टिकी है जो मतदान के माध्यम से शासन तय करते हैं। लेकिन यदि उस मतदान प्रक्रिया में ही अनियमितता, अवैधता या धोखाधड़ी हो, तो क्या यह लोकतंत्र सुरक्षित रह सकता है? आज यह सवाल अत्यंत प्रासंगिक हो गया है, क्योंकि बिहार से शुरू हुआ सिस्टेमेटिक आइडेंटिफिकेशन एंड रिमूवल अभियान, इस लोकतांत्रिक संरचना की पवित्रता को बनाए रखने की एक ऐतिहासिक पहल बन चुका है।
इस प्रक्रिया को केवल तकनीकी अभ्यास मानना भूल होगी; यह संविधान की आत्मा को लागू करने का प्रयास है, जो हर वैध भारतीय नागरिक को ही मतदान का अधिकार देता है। अनुच्छेद 326 स्पष्ट करता है कि सिर्फ नागरिकों को ही चुनाव में भाग लेने का हक है, लेकिन हाल के वर्षों में बड़ी संख्या में गैर-नागरिक भी फर्जी दस्तावेज़ों के ज़रिए मतदाता सूची में शामिल हो गए हैं। आधार, राशन और वोटर कार्ड जैसे पहचान पत्र इनके हाथों में पहुंच चुके हैं, जो न केवल संविधान का उल्लंघन है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और चुनाव की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े करता है। अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग को निष्पक्ष चुनाव कराने का अधिकार है, और इसी के तहत बिहार में यह पहल शुरू हुई है। इसका मकसद सिर्फ सूची सुधार नहीं, बल्कि लोकतंत्र की रक्षा है। पटना, किशनगंज और कटिहार में जांच के दौरान हजारों संदिग्ध नाम सामने आए, जिनमें कई दोहराव और फर्जी पहचान के मामले मिले। इससे न केवल प्रशासन की लापरवाही उजागर होती है, बल्कि यह जाली दस्तावेज़ों के एक संगठित नेटवर्क और कुछ राजनीतिक तत्वों की संलिप्तता की ओर भी इशारा करता है।
इस विषय को और अधिक संवैधानिक बल उस समय मिला जब न्यायालय ने कहा कि “मतदाता सूची को गहन प्रक्रिया के माध्यम से सही करने में कुछ भी गलत नहीं है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गैर-नागरिकों या फर्जी नामों को हटाया जा सके” …. “मतदाता सूची को गहन प्रक्रिया के माध्यम से सही करने में कुछ भी गलत नहीं है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि गैर-नागरिकों या फर्जी नामों को हटाया जा सके” .
यहाँ प्रश्न केवल बिहार का नहीं है। देश के अनेक राज्य, जैसे असम, पश्चिम बंगाल, झारखंड, उत्तराखंड और दिल्ली, वर्षों से अवैध घुसपैठ की समस्या से ग्रस्त हैं। असम में जब राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर की प्रक्रिया शुरू हुई, तब यह उजागर हुआ कि लाखों की संख्या में ऐसे लोग मतदाता सूची में पंजीकृत हैं, जो भारतीय नागरिक नहीं हैं। एनआरसी को राजनीतिक विवादों में घसीटा गया, लेकिन उसकी मूल भावना बिल्कुल स्पष्ट थी, भारत के नागरिकों की पहचान सुनिश्चित करना और लोकतंत्र को निष्कलंक बनाना। आज यही भावना बिहार के माध्यम से पूरे देश में जागृत हो रही है। लेकिन यह तभी सार्थक होगी जब SIR को एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में अपनाया जाएगा। फर्जी मतदाताओं को हटाना किसी विशेष धर्म, जाति या समुदाय के विरुद्ध नहीं, बल्कि संविधान के पक्ष में खड़ा होना है। जब चुनावों में एक-एक वोट सरकारों की दिशा तय करता है, तो हर फर्जी नाम लोकतंत्र की आत्मा पर आघात करता है।
अगर कल पश्चिम बंगाल में सरकार बदलती है और यहाँ भी एनआरसी लागू किया जाता है तो अवैध बांग्लादेशीयों की सर्वाधिक संख्या पश्चिमबंग से ही निकलेगी। यहाँ दस्तावेज बनाने वाले तंत्र ने लाखों फर्जी मतदाता पहचानपत्र बनाये है। इसलिए चुनाव आयोग को यहाँ भी ये एसआइआर प्रक्रिया चालू करनी चाहिए और जल्दी चालू करनी चाहिए जिससे उच्च न्यायलय में कपिल सिब्बल या अभिषेक मनु सिंघवी जैसे लोग समय को लेकर प्रश्न न उठा सके और समय रहते प्रदेश की जनता में चुनाव के महल में सुरक्षा का भाव मिले। क्योंकि पश्चिम बंगाल में लोग ये बोलते हुए मिल जायेंगे कि 23 में 11 जिलों में तो मुस्लिम मतदाता निर्धारित करते है कि कौन सी पार्टी जीतेगी। और सभी जानते है कि मुस्लिम मतदाता एकतरफा तृणमूल को वोट देते है। इसलिए तृणमूल भी अवैध बांग्लादेशियों को बांग्ला भाषा के आड़ में उन्हें भारतीय बंगाली सिद्ध करते हुए अपने वोट बैंक तो साधती ही है समाज में विभेद और भय की सृष्टि करती है। अगर आमजन को यह विश्वास हो जाये कि अवैध बांग्लादेशियों का मताधिकार नहीं रहा तो वे अपने मताधिकार का निर्भयतापूर्वक प्रयोग परिवर्तन के लिए करेंगे और उन्हें चुनाव के बाद की हिंसा कर डर नहीं रहेगा। अब चुनाव आयोग को पश्चिम बंगाल में पूरी तयारी के साथ उतरने की आवश्यकता होगी क्योंकि यहाँ न सरकार सहयोग करेगी न स्थानीय प्रशासन। केंद्रीय जाँच आयोग के अधिकारियों का अनुभव इस बात की पुष्टि करेगा। और फिर अपना ‘पॉकेट वोट’ कोई सरकार क्यों खोना चाहेगी, है न?
कुछ राजनीतिक दल, विशेषकर सीमावर्ती राज्यों में, इस प्रक्रिया को "धार्मिक या जातीय पक्षपात" के चश्मे से देख रहे हैं। लेकिन यह दृष्टिकोण स्वयं लोकतंत्र के साथ अन्याय है। क्या लोकतंत्र की रक्षा के लिए आँखें मूँद लेना सही होगा? क्या यह उचित नहीं कि हम यह सुनिश्चित करें कि जो भारत का वैध नागरिक है, वही भारत का मतदाता हो? यह प्रश्न केवल प्रशासनिक नहीं, बल्कि नैतिक और संवैधानिक उत्तरदायित्व का है। देश का लोकतंत्र फर्जी वोटों की बुनियाद पर नहीं टिक सकता। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात है, क्योंकि यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि सरकार भी इस चुनौती को गंभीरता से ले रही है। आज जब डिजिटल पहचान और डेटा समेकन के युग में हम प्रवेश कर चुके हैं, तो यह आवश्यक हो गया है कि चुनाव प्रणाली भी उस पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को अपनाए जो आधुनिक भारत की पहचान है। यह एक ऐसा समय है जहाँ प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया और समाज सभी को मिलकर इस प्रक्रिया का समर्थन करना चाहिए। मतदाता सूची का शुद्धिकरण अब न तो वैकल्पिक है और न ही राजनीतिक विमर्श का विषय। यह राष्ट्रहित का अनिवार्य अंग है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, जहाँ एक वोट भी निर्णायक हो सकता है, वहाँ चुनाव प्रक्रिया को स्वच्छ और निष्पक्ष बनाना ही सुरक्षित लोकतंत्र की आवश्यकता है।
