स्वतंत्रता के बाद भारत न केवल राजनीतिक पुनर्निर्माण का, बल्कि वैचारिक उथल-पुथल का भी साक्षी रहा। इसी दौर में वामपंथी उग्रवाद ने ‘क्रांति’ के नाम पर आदिवासी अंचलों और पिछड़े जिलों में गहरी पैठ बनाई। कम्युनिस्ट आंदोलन, जो आगे चलकर ‘नक्सलवाद-माओवाद’ भी बना, ने हथियार ही नहीं उठाए, बल्कि विश्वास, संबंध और सहयोग जैसे मानवीय मूल्यों का सहारा लेकर एक सामाजिक पूंजी बनाई। वंचित समुदायों में वैचारिक कवच गढ़ा, जो राज्य की हर पहल को वर्षों तक निष्क्रिय करता रहा। आज ऑपरेशन ब्लैक फॉरेस्ट और नक्सल-मुक्त भारत जैसे कदमों से इस कुचक्र के टूटने की उम्मीद जगी है। पिछले स्तंभ में हमने बताया था कि वामपंथी, अब आदिवासियों के नाम पर सहानुभूति बटोरने की कोशिश करेंगे। कोलकाता की गलियों में सभाएं, शोक संदेश और संपादकीय अब उनके चेहरे से नकाब हटा रहे हैं। बासव राजू के मारे जाने के बाद इनकी संलिप्तता की परतें खुलने लगी हैं। वामपंथी जमात के सभी दलों का गर्भनाल एक और उद्देश्य भी एक है।
कम्युनिस्टों ने आदिवासी क्षेत्रों में सामाजिक पूंजी का निर्माण एक सुनियोजित रणनीति से किया। जहाँ सरकार की मौजूदगी कम थी, वहाँ माओवादियों ने समानांतर 'जनताना सरकार' स्थापित की, सड़क, स्कूल, अस्पताल और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के स्थान पर अपना ढांचा खड़ा किया।
सरकारी उपेक्षा और आदिवासी समाज के असंतोष को उन्होंने सम्मान, स्वायत्तता और 'जन-क्रांति' के वादे में बदल दिया। स्थानीय संस्कृति में रचते-बसते वे त्योहारों में शामिल हुए, पंच बने और पारंपरिक भूमिकाओं को हथिया लिया। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यापार और न्याय तक में अपनी पकड़ बनाई, एक वैकल्पिक व्यवस्था, जो 'जनहितैषी' दिखती थी, पर असल में यह वैचारिक और सशस्त्र कब्जा था।
पहले यह सामाजिक पूंजी इनके सभी आंदोलनों की रीढ़ बनी। राज्य की कोशिशें असफल होती गईं क्योंकि घने जंगल में बसे लोगों को सरकार पर नहीं, माओवादी संरचना पर भरोसा करने पर बाध्य किया गया। इसी को हथियार बनाकर युवाओं की भर्ती की गई। उन्हें बताया गया कि वे अपनी पहचान, जल-जंगल-ज़मीन के लिए लड़ रहे हैं। दूसरे चरण में सूचना प्रवाह पर नियंत्रण किया गया। सरकारी योजनाओं के समर्थन को ‘गद्दारी’ बताया गया। गाँवों में अंदरूनी दुश्मनों की अवधारणा पैदा हुई। वित्तीय नियंत्रण के लिए ‘जन टैक्स’ के नाम पर संसाधनों की वसूली की गई। लूट को सामाजिक स्वीकृति मिली, क्योंकि विकल्प शून्य थे। इस मानसिक कब्जे को तोड़ना, नक्सल-मुक्त भारत अभियान की सबसे बड़ी चुनौती है।
लोकतंत्र की नींव को कमजोर करने के लिए चुनावों के बहिष्कार को बढ़ावा दिया गया और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया। इसके पीछे किसी भी वैकल्पिक विचारधारा को न पनपने देने का उद्देश्य था। एक ऐसी 'एकमात्र वैध आवाज़' का निर्माण करना जो माओवाद की विचारधारा से अलग न हो। सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि इस पूरे सामाजिक नियंत्रण और वैचारिक युद्ध की कमान जंगल में नहीं, बल्कि दूर बैठे शहरी नक्सलियों के हाथों में है। ये अर्बन नक्सल न केवल नैरेटिव गढ़ते हैं, बल्कि नीतिगत स्तर पर राज्य को कमजोर करने की रणनीति बनाते हैं। गाँव का निर्दोष व्यक्ति एक मानवीय ढाल, सूचना वाहक, और कभी-कभी एक बेकसूर बलि का बकरा बन जाता है, जबकि असली शक्ति और निर्णय शहरी सुविधाओं में बैठी जमात के पास होती है।
छत्तीसगढ़ और सीमावर्ती राज्यों के माओवादी गढ़ों को तोड़ने के लिए नक्सल मुक्त अभियान तीन स्तंभों पर आधारित लगता है। पहला, शीर्ष नेतृत्व का सफाया, कमांडरों और खुफिया नेटवर्क पर प्रहार कर वैचारिक ढांचे को कमजोर करना। दूसरा, आपूर्ति लाइनों की काट, हथियार और फंडिंग की शहरी शृंखला तोड़ी गई। तीसरा, राज्य पर विश्वास की बहाली, जनताना सरकारों वाले क्षेत्रों में स्कूल, सड़क, स्वास्थ्य और राशन जैसी योजनाएं तेजी से पहुंचाईं जाएं।
नक्सल-मुक्त भारत केवल सैन्य नहीं, लोकतंत्र और विकास में विश्वास की पुनर्स्थापना का अभियान है। यह विचारधारा के विरुद्ध वह लड़ाई है, जिसकी जड़ें शहरों में है, पर युद्ध जंगलों में लड़ा जा रहा है।
कम्युनिस्ट विचारधारा ने युवाओं, बुद्धिजीवियों और शिक्षाविदों को राष्ट्रहित से भटका कर हिंसक 'जनक्रांति' की ओर मोड़ा। विश्वविद्यालयों, एनजीओ और मीडिया में ऐसी पैठ बनाई कि नक्सली हिंसा को ‘शोषितों की आवाज़’ का जामा पहनाया गया, जबकि असली पीड़ित वे ग्रामीण और आदिवासी हैं जो मोहरे बनकर इस्तेमाल हुए।
इस वैचारिक संरक्षण ने माओवादी मशीनरी को वैधता दी। छात्र कट्टरपंथी बने, एनजीओ की आड़ में हथियार तस्करी हुई, और विदेशी फंडिंग को जनसमर्थन बताया गया। यह सब ‘जनता की क्रांति’ के नाम पर हुआ जबकि ज़मीनी सच्चाई इसके उलट है। इस लाल नेटवर्क का सफाया तभी संभव है जब आदिवासी क्षेत्रों में गरिमापूर्ण विकास सुनिश्चित किया जाए, जो उन्हें सम्मान, अवसर और सहभागिता का वास्तविक अनुभव दे। शिक्षा व्यवस्था में वैचारिक संतुलन हो और आलोचनात्मक चिंतन को बढ़ावा मिले, ताकि युवा किसी भी एकांगी प्रचार का शिकार न बनें। खुफिया और सुरक्षा तंत्र को मज़बूत बनाते हुए नागरिक स्वतंत्रताओं का भी सम्मान किया जाए, जिससे लोकतंत्र की बुनियाद और गहरी हो। साथ ही, उन शहरी वैचारिक अड्डों पर सतत निगरानी ज़रूरी है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रविरोधी एजेंडे को खाद-पानी देते हैं।
अपनी सामाजिक पूंजी के भरोसे ये राष्ट्र की अखंडता के विरुद्ध एक संगठित युद्ध बन चुका है। इससे निपटने हेतु एक ऐसी सामाजिक पूंजी की पुनर्खोज करनी होगी, जो सत्य, न्याय और प्रगति की नींव पर खड़ी हो और भारत को फिर से एकजुट, सुरक्षित और आत्मनिर्भर बनाए। वामपंथी जमात न सत्ता में है न पश्चिम बंगाल, केरल के अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में शासन का अनुभव है पर सभी शैक्षणिक संस्थानों, मजदूर संघों, जंगलों से लेकर मछुआरा संघों तक इनकी सामाजिक पूंजी बहुत प्रभावी है। सामान्य लोगों की भावनाओं की समझ और उसे अपने एजेंडे के अनुसार व्यवहार करने की कला में ये जमात निष्णात है। भारत-हितैषि साधुजनों को इस मोर्चे पर अजेय शक्ति का निर्माण करना होगा। इस सामाजिक पूंजी को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सर्वांगीण विकास के लिए कार्य करना होगा। और हां, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों यानि केवल जंगल नहीं दिल्ली का जेएनयू, कोलकाता का जादवपुर विश्वविद्यालय या प्रगतिशीलता के चोंगे में लिपटे साहित्यिक संस्थान सब नक्सल प्रभावित क्षेत्र हैं। इनकी पहचान स्पष्ट रहनी चाहिए।