प्रिय पाठक,
आपने ऐसा मजाक सुना है जिस पर गुस्सा भी आता हो और हंसी भी? नहीं? तो चलिए, आज एक ऐसी बात बताते हैं, जो आपको हैरान कर देगी। हर साल दिसंबर के महीने में, मशहूर मैगजीन "The Economist" "कंट्री ऑफ द ईयर" का तमगा देती है। लेकिन 2024 में इस खिताब को लेकर जो हुआ, वह वाकई में एक ऐसा किस्सा है जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा।

"The Economist" ने इस बार बांग्लादेश को "कंट्री ऑफ द ईयर" घोषित कर दिया! जी हां, वही बांग्लादेश, जिसकी पहचान अब भी दुनिया के नक्शे पर गरीबी, भुखमरी, और अशिक्षा से जुड़ी है। यकीन मानिए, जब मैंने यह खबर पढ़ी, तो मैंने खुद से यही सवाल किया: "क्यों?"
मैगजीन का कहना है कि यह पुरस्कार धन, खुशी या सुखी जीवन पर आधारित नहीं है। इसके बजाय यह तमगा उन देशों को मिलता है, जिन्होंने "सबसे ज्यादा सुधार" किया हो। उनकी नजर में बांग्लादेश ने इस साल का सबसे बड़ा सुधार किया क्योंकि उन्होंने एक सत्तावादी शासन को गिराया।
यह बात पढ़कर मेरी जिज्ञासा और बढ़ी, क्योंकि जो "सुधार" उनके मुताबिक हुआ है, उसकी सच्चाई बहुत कुछ छुपाती है। बांग्लादेश में शेख हसीना की सत्ता खत्म हुई और कथित तौर पर एक अंतरिम सरकार बनाई गई, जिसे उन्होंने "नवाचार और आर्थिक स्थिरता" का प्रतीक बताया। The Economist की रिपोर्ट पढ़ते हुए मैं सोचने लगा, "कौन-सा सुधार हुआ है बांग्लादेश में?" जवाब आया: बांग्लादेश ने “एक सत्तावादी शासन को उखाड़ फेंका है।” उन्होंने इसे "छात्र-आंदोलन" और “लोकतंत्र की बहाली” का नाम दिया। ऐसा कहा गया कि शेख हसीना के पतन के बाद "अंतरिम तकनीकी सरकार" के नेतृत्व में आर्थिक स्थिरता आ गई है। लेकिन इसमें गहरी खामियां हैं।
लेकिन जब हकीकत देखी, तो सच्चाई का एक और ही रूप सामने आया। शेख हसीना के पतन के बाद न केवल हिंदू अल्पसंख्यकों पर हमलों की बाढ़ आ गई, बल्कि बांग्लादेश ने 50,000 टन चावल की मांग कर डाली, ताकि भूख का सामना किया जा सके। बिजली कंपनियों के लाखों डॉलर के बिल बकाया पड़े हैं। उनकी कपड़ा इंडस्ट्री, जो उनकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, आज संकट में है।
फिर सवाल यह है कि "किस सुधार" की बात हो रही है? क्या हिंसा और कुप्रबंधन को सुधार माना जा सकता है? या फिर "The Economist" ने उन तथ्यों को नजरअंदाज करना चुना, जो उनकी परिभाषा के अनुरूप नहीं थे?
पाठक, यह कहानी केवल बांग्लादेश की नहीं है। यह पश्चिमी मीडिया की चयनात्मक नैतिकता की भी कहानी है, जहां तथ्यों से अधिक उनका एजेंडा मायने रखता है। तो बताइए, आपको इस मजाक पर गुस्सा आता है या हंसी?

आप जानते हैं कि असलियत क्या है?
जब बांग्लादेश को "आर्थिक स्थिरता" और "सुधार" का प्रतीक कहा गया, उसी समय यह तथ्य सामने आया कि बांग्लादेश ने भारत से 50,000 टन चावल की आपूर्ति की गुहार लगाई। यह मांग इसलिए हुई, क्योंकि वहां खाद्यान्न संकट गहराता जा रहा है। नवंबर 2024 में बांग्लादेश सरकार ने भारत सरकार से इस आपूर्ति के लिए अनुरोध किया।
इतना ही नहीं, देश की वित्तीय हालत का दूसरा पहलू अदानी ग्रुप के बकाया बिजली बिल से भी झलकता है। बांग्लादेश कई महीनों से अदानी ग्रुप को उसका बकाया चुकाने में असमर्थ है। यह बात उनके आर्थिक संकट की एक और झलक दिखाती है।
अब आपको असली स्थिति समझाता हूं।
बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार
शेख हसीना के पतन के तीन दिनों में 205 से अधिक हमले हुए—मंदिरों, दुकानों, और घरों को निशाना बनाया गया। यहां तक कि भगवान गणेश और दुर्गा की मूर्तियों को तोड़ने के किस्से चिटगांव, पाबना, और किशोरगंज में सामने आए। और ये संख्या सालों से बढ़ती जा रही है:
- 2022: 47 हमले
- 2023: 302 हमले
- 2024: 2,200 हमले (पिछले साल से 628% की वृद्धि! )
यह सोचकर सिहरन होती है कि चार सालों में यह वृद्धि 4,580% तक पहुंच गई। क्या कोई देश "सुधार" के दावे के साथ इन आंकड़ों को नजरअंदाज कर सकता है?
The Economist की रिपोर्ट में इन अमानवीय अत्याचारों का कहीं जिक्र तक नहीं। और ये पहला मौका नहीं है। पश्चिमी मीडिया में, खासकर बीबीसी और The Wire जैसे प्लेटफॉर्म, हिंसा के इन मामलों को या तो "राजनीतिक अस्थिरता" के नाम पर ढक दिया जाता है या उनका महत्व कम कर दिया जाता है।
आपको जानकर हैरानी होगी कि इन्हीं घटनाओं को कभी-कभी "भ्रामक" या "राजनीतिक रूप से प्रेरित" बताकर दबा दिया जाता है। धार्मिक हिंसा की जगह "सांप्रदायिक तनाव" का लेबल लगाया जाता है। सवाल यह है, क्या हिंदुओं के जीवन, आस्थाओं, और उनकी सुरक्षा का कोई महत्व नहीं?
ये घटनाएं पश्चिमी मीडिया और संगठनों की वर्षों पुरानी धूर्तता को उजागर करती हैं। जब भारत में हिंदू किसी मुद्दे को उठाते हैं, तो इसे तुरंत "हिंदुत्व का उग्रवाद" करार दे दिया जाता है। लेकिन बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले उनके लिए महज "सामान्य राजनीतिक घटना" बनकर रह जाती है।
यह कहानी सिर्फ बांग्लादेश तक सीमित नहीं। यह एक वैश्विक प्रोपगैंडा का हिस्सा है, जहां तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा जाता है और अपने एजेंडे को साधा जाता है।
तो सवाल यह है कि आपको इस तमगे पर हंसी आती है या गुस्सा? क्या ऐसे "सुधार" का उत्सव मनाना मानवता के खिलाफ नहीं? बात सिर्फ एक अवार्ड की नहीं है। यह उस सोच की है, जो तथ्यों को छुपाने और एजेंडा चलाने में विश्वास रखती है। बांग्लादेश को "कंट्री ऑफ द ईयर" कहना अगर उनके लिए प्रगति का प्रतीक है, तो हमें यह पूछने का हक है कि प्रगति के पैमाने आखिरकार कितने नैतिक हैं?
हम इस घटनाक्रम से सीख सकते हैं कि हर कहानी का दूसरा पहलू भी होता है। केवल पश्चिमी मीडिया या अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की आंखों से दुनिया देखने के बजाय हमें सच्चाई परखने और उसे सवालों के कटघरे में खड़ा करने का साहस करना चाहिए।
हमें उन मूल्यों की पैरवी करनी चाहिए जो न केवल आर्थिक विकास बल्कि सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक सहिष्णुता को भी प्राथमिकता देते हैं। बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देश की हकीकत को देखते हुए, यह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि हम उनके अल्पसंख्यकों के संघर्ष को नजरअंदाज न करें।
दूसरी ओर, यह घटना हमें अपने राष्ट्र के प्रति और भी जिम्मेदार बनाती है। भारत एक ऐसा देश है जहां लोकतंत्र, आर्थिक प्रगति, और धार्मिक सहिष्णुता के मजबूत आधार हैं। हमें दुनिया को यह दिखाने की जरूरत है कि वास्तविक प्रगति केवल सुधार के दिखावे से नहीं, बल्कि समानता, विकास, और शांति को साथ लेकर चलने से होती है। जो लोग अंग्रेजी में लिखे हर बात को सच्चाई का प्रतिमान या सत्य का प्रमाण मानाने लगते है अपने वैसे बंधुओं से आग्रह है कि अपनी बुद्धि को काम पर लगाए, सत्यान्वेषण करें। जो बुद्धि भैंस के साथ घास चरने गई है उसे वापस बुलाकर तथ्यों की खोज वाले खूंटे से बांध लें

नहीं तो ऐसे ही जोक ऑफ़ ईयर चुपचाप सुनते रहे।
अच्छा हुआ कि इस बार थे इकोनॉमिस्ट के डिजिटल एडिशन का subscription renewal नहीं करवाया था।
आइए फेसबुक पर मिलते हैं।
कमेंट बॉक्स में आपकी प्रतीक्षा नहीं करूँगा......
आगे पढ़ना और लिखना भी तो है
नहीं तो ये the economist जैसो की ecosytem हमारी बुद्धि को भी अपने खूंटे से बाँध देगी।
आपका,
✍️ विप्लव विकास