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‘हिन्दूफोबिक’ विपक्ष और विदेशी शक्तियों के षड्यंत्र से सावधान भारत

2024-12-08  विप्लव विकास

नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त मोहम्मद यूनुस की देखरेख में बांग्लादेश में हिन्दुओं का जातिय संहार योजनाबद्ध रूप से चल रहा है। जातिय संहार को अंग्रेजी में एथनिक क्लींजिंग कहते है, संभवतः आप भी अंग्रेजी के ही इस शब्द से अधिक परिचित हों क्योंकि जातियों के संहार की बात एक भारतीय मन में न हो ये स्वाभाविक है परन्तु ईसाइयत और इस्लाम का इतिहास इस शब्द के चारो ओर चक्कर लगाता है। इस विषय पर विगत चार महीनों से हम ‘स्वदेश’ सहित विभिन्न संवाद माध्यमों में पढ़ते और सुनते आ रहे है। परन्तु एक बात गौर करने की है कि इस देश का विपक्ष, मैं केवल वामपंथी दलों की बात नहीं कर रहा हूँ, सम्पूर्ण विपक्ष बांग्लादेश की परिस्थिति पर या तो मौन है या फिर द्विधा में है। वामपंथियों की भूमिका पर हमलोगों ने पिछले अंक में विस्तार से चर्चा की था।

 

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‘हिन्दूफ़ोबिया’ की जो बीमारी समाज के एक हिस्से को लगी, इसके मूल सूत्रधार वामपंथी हैं। इनके चरित्र से हम सभी परिचित हैं। भारतीय राजनीति के अंकगणित की दृष्टि से ये दल परजीविता के सहारे दो-चार आसन सम्पूर्ण भारत में प्राप्त कर पाते हैं। परन्तु आन्दोलनजीविता और वर्तमान भारतीय विपक्ष के लिए ‘पीच’ तैयार करने में इनकी भूमिका अग्रगणी होती है। अलग-अलग नाम, पहचान, रंग और स्वरुप में वामपंथी कट्टरता ही देश के समक्ष नई समस्याओं या फिर भ्रम की स्थिति उत्पन्न करने वाले वातावरण को जन्म देती है। राहुल गाँधी के हाथ में वो ‘लाल संविधान’ की पुस्तिका तो आपने देखी होगी न? तो क्या विपक्ष ‘हिन्दूफ़ोबिक’ हो गया है? 

 

ये सप्ताह भारतीय विपक्ष के लिए चिंतन करने वाला सप्ताह रहा है अगर वो सकारात्मक विपक्ष की भूमिका पालन करने को इक्षुक और प्रस्तुत है। अन्यथा भारत की जनता को चिंतन करना चाहिए कि ‘एक ही स्वरुप की घटनाओं’ पर ‘विपक्ष का अलग-अलग रूप’ क्यों होता है? जब बहराइच में गोपाल मिश्रा की गोली मारकर हत्या कर दी जाती है तब न तो राहुल न ही अखिलेश कोई भी उनके परिवार के साथ खड़ा नहीं होता। हिन्दू समाज के 500 वर्षों के सतत संघर्ष और अगणित  बलिदानों के पश्चात श्री रामलला विराजमान के, जिन्हें देश के सर्वोच्च न्यायालय में अपनी जन्मभूमि पर अपना अधिकार सिद्ध करना पड़ा, भारत के लोगों के धन से भव्य जन्मभूमि-मंदिर का निर्माण हुआ उसकी प्राणप्रतिष्ठा समारोह में ये लोग तो आमंत्रण मिलने के बाद भी सहभाग नहीं किए। ये लोग श्रीराम, श्रीकृष्ण और महादेव के भक्तों को न्यायलय में अपने आराध्य की जन्मभूमि या ऐतिहासिक मंदिर की प्रमाणिकता के लिए आने को विवश करते हैं। तब इनकी वैज्ञानिकता और न्यायप्रियता की बात सुनते बनती है।

 

भाई, जब मंदिर अपने होने की प्रमाणिकता देने के लिए सभी प्रकार के न्यायिक और वैज्ञानिक जाँच के लिए प्रस्तुत हैं या हो जाते हैं, तो फिर मस्जिदों की जाँच उसी आधार पर क्यों नहीं होनी चाहिए? रामसेतु की वैज्ञानिक पद्धति से जाँच करवा ली। अब भोजशाला हो या संभल या अजमेर या फिर मालदा का आदिनाथ का मंदिर जो वर्तमान में तथाकथित अदीना मस्जिद कहलाती है की जाँच वैज्ञानिक और न्यायिक प्रक्रिया के तहत क्यों ना हो? जाँच कीजिए, जो सत्य सामने आये उसके आधार पर निर्णय लीजिए। इस पर ये ‘हिन्दूफ़ोबिक गैंग’ तुरंत कहता है ‘न जी न, इससे तो ‘उनकी’ भावनाएं भड़क जाएंगी’। क्यों भाई अपने महादेव के मंदिर के हिस्सों को जबरन तोड़कर उसी के ऊपर तीन-चार गुम्बद बैठा कर उसे मस्जिद घोषित कर देने वाली घटना को सुनकर हिन्दुओं की भावनाएं नहीं भड़क सकतीं? जब शिवलिंग को फव्वारा कहते हो तब हिन्दुओं की भावनाएं नहीं भड़क सकती? जब हिन्दू समाज औरंगजेब, अकबर, बाबर, खिलजी जैसे तत्कालीन आततायी शासकों के द्वारा अपने पूर्वजों के स्वाभिमान के मर्दन की घटनाएं इतिहास में पढता है और अपनी नंगी आँखों से काशी, मथुरा, अजमेर, मालदा जैसे सहस्रों स्थानों पर देखता है तब उसकी भावनाएं नहीं भड़क सकती क्या?

 

न्यायप्रिय, सतत संघर्ष और अपने पूर्वजों की सत्यान्वेषण की वैज्ञानिक परंपरा में विश्वास करने वाला हिन्दू समाज पत्थरबाजी करने और अपने देश की सड़को पर भीड़ के द्वारा फैसले करने वाली जमात का हिस्सा नहीं होना चाहता इसलिए वो न्यायलय की ओर कूच करता है। जाँच के लिए दरवाजे खोलता है। उसे पता है कि सत्य उसके साथ है और जाँच के बाद निर्णय सत्य के पक्ष में ही आएगा। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर और श्रीराम सेतु इसके जाज्वल्यमान प्रमाण हैं। तदनुरूप कांग्रेस और उनके गुट को भी ये पता है कि अगर जाँच सही से हो गयी तो वर्तमान का कब्ज़ा समाप्त हो जाएगा इसलिए वो जाँच में बाधा डालते हैं, मुसलमानों के एक गुट को भड़काते हैं और भड़काए रखते है जिससे उनका ये चातुर्यपूर्ण-वक्तव्य कि ‘मुसलमानों की भावनाएं आहत होंगी’ समीचीन बना रहे। न्यायलय तथा सरकार के ऊपर शांति-व्यवस्था और सामाजिक सौहार्द बनाए रखने का मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे। तभी तो संभल में पत्थरबाजी कराई जाती है। इसमें भी समाजवादी दल के नेताओं का नाम सामने आ रहा है। मस्जिदों और चुनाव के बीच रणनीतिक हिस्सेदारी की कीमत भारत और विशेषकर मुस्लिम समाज कब तक चुकाता रहेगा? ये तो मुस्लिम समाज का सही में भला चाहने वाले सभी लोगों को सोचना चाहिए। कारण? मुस्लिम समाज कुछ परिवारों के लिए केवल मतगणना वाली संख्या और वामपंथियों के लिए ‘सोशल कैपिटल’ भर तो नहीं है न? राहुल गाँधी बहराइच नहीं जाते, ‘जस्टिस फॉर आर जी कर’ हेतु कोलकाता नहीं आते पर संभल जाते है। कारण मूलतः मतगणना की संख्या में छिपा है। नहीं तो कोई नेता प्रतिपक्ष संसद में ‘हिन्दू को हिंसक’ कह सकता है भला? ये ‘हिन्दू-फोबिया’ नहीं तो और क्या है। 

 

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इकनोमिक टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के रिपोर्ट के अनुसार “सम्भल हिंसा के मामले में पाकिस्तान से जुड़े होने का सबूत पाया गया है। घटना स्थल से फॉरेंसिक टीम और नगर निगम की टीम द्वारा मंगलवार को ड्रेनों से छह खाली कारतूस बरामद किए गए। इनमें से एक कारतूस पाकिस्तान में बना था, जबकि एक अन्य अमेरिका में निर्मित था।” क्या आपने इस पर इस देश के नेता प्रतिपक्ष का कोई वक्तव्य सुना? देश के आतंरिक सुरक्षा में विदेशी शक्तियों के सेंध की ओर ध्यानाकर्षित करने वाली इस रिपोर्ट के आधार पर तो एक रचनात्मक विपक्ष देश के सरकार से प्रश्न पूछता। वो भी तब जब संसद सत्र चल रहा है। पर वो पूछे कैसे जब उन पर ही ये आरोप लग रहा है कि वो जार्ज सोरोस जैसों के एजेंट हैं!

 

 

लोकसभा में निशिकांत दुबे ने और राजयसभा में सुधांशु त्रिवेदी ने कांग्रेस के ओसीसीआरपी, जार्ज सोरोस और अन्य भारत विरोधी शक्तियों से सम्बन्ध पर तथ्यों के साथ बोला। पेगासस, हिंडनबर्ग, बीबीसी डाक्यूमेंट्री और अन्य ऐसे ही मुद्दों पर संसद सत्र में प्रियंका गाँधी, संजय राउत, राजदीप सरदेसाई जैसे लोगों का नाम ले कर और कब कैसे इन लोगों ने क्या गतिविधि की इस पर खुल कर बोले। हमने ‘सुनो भाई साधो’ के पिछले अंकों में इन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की थी। इस बार संसद सत्र में जब इन मुद्दों पर चर्चा हुई तब राहुल गाँधी को चाहिए कि वो संसद में निशिकांत दुबे के प्रश्नों का जवाब दें।  नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस गुट को इस मुद्दे पर देश की जनता को सत्य बताना चाहिए। एक संप्रभु राष्ट्र के राष्ट्रिय राजनीतिक दल, नेता प्रतिपक्ष और पत्रकारों के नाम और गतिविधियों को संसद की बहस में तथ्यों के साथ जब रखे जाते हैं तब ये चिंता का विषय बन जाता है। विपक्ष को सत्य बताकर हम सभी को इस चिंता से मुक्त करना चाहिए। 

 

 

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