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क्या 26/11 की सच्चाई पर पर्दा डालने वालों से भी सवाल होंगे?

2025-04-13  विप्लव विकास

जब सीएसटी स्टेशन पर गोलियों की बारिश हो रही थी, जब ताजमहल होटल की ऐतिहासिक इमारत लपटों में घिरी थी, और जब नरीमन हाउस से चीखें उठ रही थीं, उस रात भारत ने केवल अपने नागरिक नहीं खोए थे, उसने अपने आत्मविश्वास, अपनी सुरक्षा और अपने विश्वास की भी हत्या देखी थी। देश सदमे में था, शोकग्रस्त था, लेकिन उसी समय, कुछ वातानुकूलित कमरों में एक और षड्यंत्र हो रहा था। यह षड्यंत्र कराची की गलियों में नहीं, दिल्ली के ड्राइंग रूमों में हो रहा था। पाकिस्तान की जगह भारत के लोगों को फंसाने का षड्यंत्र ! इस षड्यंत्र में पाकिस्तान के साझेदार कहीं ये कांग्रेसी इकोसिस्टम भी तो नहीं था?

सोलह वर्षों बाद, तहव्वुर हुसैन राणा, वह व्यक्ति जो 26/11 के हमलों में लश्कर-ए-तैयबा का सहायक था, उसे अमेरिका ने भारत को सौंप दिया है। तहव्वुर हुसैन कोई सामान्य अपराधी नहीं, बल्कि वह चेहरा है जिसने डेविड कोलमैन हेडली जैसे आतंकी को भारत में हमला करने की ज़मीन दी। हेडली वही शख्स जिसने अदालत में कबूल किया कि वह आईएसआई  और लश्कर के इशारे पर मुंबई आया था। उसने भारतीय टारगेट्स की रेकी की, ताज, ओबेरॉय, नरीमन हाउस, और कई अन्य जगहों की फोटोग्राफी की। हेडली ने कबूल किया कि अमेरिका और पाकिस्तान के बीच उसकी गतिविधियों को कानूनी लिबास तहव्वुर हुसैन की "इमीग्रेशन सर्विस कंपनी" ने दी। एफबीआई की जांच रिपोर्ट और शिकागो कोर्ट के दस्तावेज़ इसकी पुष्टि करते हैं।

लेकिन भारत में जब खून बह रहा था, तब बहस का केंद्र तहव्वुर या हेडली नहीं थे। कांग्रेस और मीडिया ने पथभ्रष्टता की हद पार कर वास्तविक आतंकवादियों पर कार्रवाई की जगह आतंक के लिए नए शब्द गढ़ने लगे। जांच की आधिकारिक पुष्टि से पहले ही, संघ को निशाना बनाया गया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने अजीज बर्नी की एक किताब "26/11: RSS की साज़िश?" का विमोचन किया। NDTV और कई अन्य प्रमुख चैनलों पर बहसें चलीं कि कहीं यह "इनसाइड जॉब" तो नहीं था? ध्यातव्य हो कि अजीज ने बाद में इसके लिए लिखित माफ़ी भी मांगी। 

यह सब तब हो रहा था जब अजमल कसाब खुद पाकिस्तान और आईएसआई का नाम ले रहा था। तब जबकि हेडली एफबीआई के समक्ष कबूल कर रहा था कि उसे आईएसआई ने ट्रेनिंग दी, और तहव्वुर को उसने अपने सहयोगी के रूप में नामित किया। फिर भी भारत की आंतरिक राजनीति में संघ और 'हिंदुत्व' को दोषी ठहराने का नैरेटिव फैलाया जा रहा था।

इस विमर्श के पीछे केवल वैचारिक विद्वेष नहीं था। यह एक गहरी रणनीति थी, जहां राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न को राजनीतिक सुविधा के लिए मोड़ दिया गया। कांग्रेस की चुप्पी और अप्रत्यक्ष समर्थन ने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर राहत दी। पाकिस्तानी सरकार वर्षों तक यही दावा करती रही कि 26/11 "भारत की अंदरूनी साज़िश" थी। भारत के भीतर से उठती इन आवाज़ों ने उनके झूठ को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने की कोशिश की। यह केवल दुर्भाग्य नहीं, बल्कि कांग्रेस के राष्ट्रीय विश्वासघात का प्रश्न है। किसी भी संप्रभु राष्ट्र में आतंकवादी घटना के समय राजनीतिक एकता और सत्यनिष्ठा आवश्यक होती है, पर भारत ने 26/11 के बाद जो देखा वह एक राष्ट्रद्रोही राजनीती का प्रतिबिंब था, जहां सत्ता के लालच ने सत्य को दरकिनार कर दिया। जब एक ओर मेजर उन्नीकृष्णन, तुकाराम ओंबले जैसे सिपाही जान की बाज़ी लगा रहे थे, तो दूसरी ओर देश के ही कुछ बुद्धिजीवी और राजनीतिक विचारक अपने विमर्श से भ्रम फैला कर दुश्मन को बचाने की कोशिश कर रहे थे। क्या यह प्रश्न नहीं उठना चाहिए कि आखिर क्यों एक स्पष्ट आतंकवादी घटना को विचारधारा की चाशनी में लपेट कर जनता के सामने परोसा गया? क्यों कांग्रेस आतंक की कमान थामे लोगों को भोपाल गैस त्रासदी के दोषियों की तरह बचाने में लगी थी ?

आज जब तहव्वुर राणा भारत लाया गया है, तो यह सिर्फ एक अपराधी का प्रत्यर्पण नहीं है। यह एक अधूरे सत्य का न्यायिक पुनर्पाठ है। तहव्वुर अब भारत की न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा बनेगा, लेकिन क्या हम उन लोगों से भी सवाल करेंगे जिन्होंने इतने वर्षों तक जनता को गुमराह किया और आतंक का चेहरा बदलने का प्रयास कर अपने राजनैतिक एजेंडे को आगे बढ़ाया? मुंबई में केवल बम नहीं फटे थे, कांग्रेसी इकोसिस्टम ने सच्चाई के स्तंभ गिराए थे।

वर्तमान समय में जब भारत वैश्विक मंच पर आतंक के विरुद्ध मुखर हुआ है, तो ऐसे समय में यह जरूरी हो जाता है कि देश अपने अतीत के उन अंधकारमय गलियारों की पुनर्परीक्षा करे, जिनमें सच को दबा दिया गया। अब जब यह ऐतिहासिक प्रत्यर्पण हुआ है, तब यह केवल न्याय की प्रक्रिया नहीं, यह राष्ट्र की स्मृति का पुनर्जीवन है। यह एक अवसर है उन परतों को हटाने का जो सोलह वर्षों से हमारी राजनीतिक संवेदना को ढकते आ रहे थे। देश को अब यह तय करना होगा कि क्या वह केवल बाहरी आतंक से लड़ेगा, या उन अंदरूनी ताकतों से भी टकराएगा जो आतंक के असली चेहरे पर पर्दा डालते हैं? क्या हम केवल कसाब जैसे हत्यारों को फांसी देंगे या उन भारत-विरोधी मानसिकताओं से भी लड़ेगे जो देश को कमजोर करती हैं, विभाजित करती हैं और भ्रमित करती हैं? मुंबई पर हमला तो पाकिस्तान ने किया था, पर भारत के भीतर कांग्रेसी इकोसिस्टम ने इस हमले की दिशा बदलनी चाही। उन्होंने आतंक का नाम बदला, निशाना बदला, और अंततः देश के ज़ख्मों पर मरहम की जगह विष घोला। यह न्याय केवल तहव्वुर राणा तक सीमित नहीं होना चाहिए, यह न्याय उस पत्रकारिता, उस राजनीति और उस वैचारिक गिरावट तक पहुँचना चाहिए जिसने 26/11 को लेकर देश को गुमराह किया।

 

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