भारत का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप से समृद्ध प्रदेश पश्चिम बंगाल एक गहरे संकट से गुजर रहा है। यह संकट केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक स्तर पर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हाल ही में मालदा के मोथाबाड़ी में हुई सांप्रदायिक हिंसा ने एक बार फिर इस सच्चाई को उजागर कर दिया कि बंगाल में हिंदू समाज एक संगठित और सुव्यवस्थित षड्यंत्र के तहत कमजोर किया जा रहा है। मालदा में हिंदुओं की दुकानों को चुन-चुनकर तोड़ा, जलाया और लूटा गया। उन्हें व्यापार से बेदखल करने की हर प्रकार की कोशिश की जा रही है। लेकिन इस हिंसा का सबसे दुखद पहलू यह है कि राज्य सरकार अपनी तुष्टिकरण की नीति को आगे बढ़ाने में व्यस्त है। स्वतंत्रता से पहले और बाद में भी इस प्रदेश में हिंदुओं के प्रति सुनियोजित हिंसा होती रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इस हिंसा का एक नया, भयावह और संगठित स्वरूप उभरकर सामने आया है। यह केवल कुछ मजहबी तत्वों की कार्रवाई नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक व्यापक राजनीतिक योजना काम कर रही है, जो धीरे-धीरे इस प्रदेश को एक और कश्मीर बनाने की दिशा में धकेल रही है।
मालदा की हिंसा केवल एक घटना नहीं है। यह उन तमाम घटनाओं की एक कड़ी है, जो वर्षों से पश्चिम बंगाल में घटती आ रही हैं। क्या यह महज़ संयोग है कि जब भी हिंदू त्यौहार आते हैं, तब ही दंगे होते हैं? क्या यह संयोग है कि दुर्गा पूजा विसर्जन पर लगातार पाबंदियां लगाई जाती हैं? क्या यह संयोग है कि रामनवमी शोभायात्रा पर पत्थरबाजी होती है? और अमर्त्य सेन जैसे व्यक्ति हिंसा पर बात न करके बंग प्रदेश के साथ श्रीराम का कोई सम्बन्ध नहीं है जैसी टिपण्णी करते है। नहीं, यह संयोग नहीं, बल्कि सुनियोजित प्रयास है, जिसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल की धार्मिक जनसांख्यिकी संरचना को बदला जा रहा है, और हिंदुओं को या तो पलायन करने पर मजबूर किया जा रहा है या फिर भय और उत्पीड़न में जीने को बाध्य किया जा रहा है। राज्य सरकार की भूमिका इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक संदेहास्पद और आपत्तिजनक है। ममता बनर्जी नीत तृणमूल कांग्रेस सरकार ने स्पष्ट रूप से एक मजहब को दुधारू गाय कहकर प्राथमिकता दी है और उसे हर प्रकार का संरक्षण देती है। सरकारी नीतियों पर नज़र डालें तो पाएंगे कि बंगाल में अल्पसंख्यक मामलों के लिए जो बजट आवंटित किया जाता है, वह तो केंद्र से भी अधिक होता है। यह बजट शिक्षा और आर्थिक सुधारों के लिए होना चाहिए, लेकिन वास्तविकता यह है कि इसका एक बड़ा हिस्सा उन संगठनों और समूहों को लाभ पहुँचता है, जो सीधे-सीधे कट्टरपंथ को बढ़ावा देते हैं। बंगाल के कई जिलों में अवैध घुसपैठियों को बाकायदा राशन कार्ड, आधार कार्ड और यहां तक कि वोटर आईडी भी उपलब्ध कराई जाती है, ताकि वे राजनीतिक समीकरण को प्रभावित कर सकें और चुनावों में एक सुनिश्चित वोट बैंक का निर्माण कर सकें।
मालदा, और मुर्शिदाबाद जैसे जिलों में हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि वहाँ के हिंदू अब अपने ही क्षेत्र में अल्पसंख्यक बन चुके हैं। यह ठीक वही स्थिति है, जो कभी कश्मीर में देखने को मिली थी। 1989-90 के दौरान कश्मीरी पंडितों को उन्हीं के घरों से निकाल दिया गया, उनके घर जला दिए गए, महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए, और वे बेघर होकर सड़कों पर या शरणार्थी शिविरों में आ गए। पश्चिम बंगाल की घटनाओं को अगर ध्यान से देखें, तो यह भी उसी दिशा में बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार इन घटनाओं से अनजान है? क्या भाजपा नेतृत्व को यह सब दिखाई नहीं दे रहा? भाजपा को पश्चिम बंगाल में दो करोड़ से अधिक मत प्राप्त हुआ। फलस्वरूप बंगाल भाजपा के कई कार्यकर्ताओं-समर्थकों की हत्या कर दी गई, लेकिन उन हत्याओं पर न कोई न्याय हुआ और न ही कोई ठोस कार्रवाई। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से जब अपेक्षा की जाती है कि वे इन घटनाओं पर कठोर निर्णय लें, तो वे या तो चुप्पी साध लेते हैं, या फिर महज़ बयानबाजी में समय गंवा देते हैं। अपराधियों पर जब कोई कार्रवाई नहीं होती तो वामपंथी जमात इसे ‘दीदी-मोदी सेटिंग’ ठहरा कर जनता को दिग्भ्रमित करते है। इससे भी बंगाल में भाजपा के प्रति अपने ही लोगों में भ्रम, और असंतोष उत्पन्न होता है। अस्तु, यहाँ बात न भाजपा की है न तृणमूल या अन्य दलों की, मुख्य चिंता का विषय इन दलों की राजनीती के कारण बंगाली हिन्दुओं पर मजहबी शक्तियों के संगठित षड्यंत्र से उत्पन्न समस्याएं और सीमांत प्रदेश में आतंरिक सुरक्षा व्यवस्था की है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि बंगाल के हिंदुओं के लिए सम्पूर्ण भारत एकजुटता दिखाए, अन्यथा कश्मीर जैसी त्रासदी दोहराई जा सकती है। पश्चिम बंगाल ही नहीं, बिहार और झारखंड के सीमावर्ती जिले भी इस संकट से प्रभावित हैं। सांसद निशिकांत दुबे ने संसद में इस विषय को उठाया है, और अब केंद्र व राज्य सरकारों पर दबाव बनाना आवश्यक है ताकि प्रभावित जिलों के अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। आज पश्चिम बंगाल में कानून के शासन की जगह शासन का कानून चल रहा है। यह संकट किसी एक राज्य का नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर चिंताजनक है। यदि इतिहास से सबक नहीं लिया गया, तो हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। क्या हम फिर से कश्मीर की तरह मूकदर्शक बने रहेंगे? क्या लोकतंत्र में सत्ता प्राप्त करने वाली पार्टी के अनीति के आगे जनता के अधिकार गौण हो जाएंगे? यदि हमने राजनीति से ऊपर उठकर सरकार को राष्ट्रीय दायित्व निभाने के लिए विवश नहीं किया, तो पश्चिम बंगाल कश्मीर बनने की राह पर आगे बढ़ता जाएगा।