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मातृशक्ति का भारतीय दृष्टिकोण: नारीवाद या समाज में बंटवारा?

2025-03-09  विप्लव विकास

कल हमने "अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" मनाया। यह अवसर ये विचार करने का समय है कि क्या नारीवाद अपने मूल उद्देश्य—महिला सशक्तिकरण—पर कायम है, या यह एक नए सामाजिक संकट में बदल चुका है? हाल की घटनाएँ, जैसे अतुल सुभाष की आत्महत्या, यह दर्शाती हैं कि नारीवाद अब केवल महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई नहीं, बल्कि पारिवारिक विघटन और पुरुषों के शोषण का माध्यम बन गया है। डॉ राजीव मिश्रा “विषैला वामपंथ” में कहते हैं “फेमिनिज्म यानि महिलाओं के हिस्से का कम्युनिज्म! अत्यल्प शब्दों में नारीवाद को स्पष्ट करती ये पंक्तियां आज सोचने पर मजबूर करती हैं कि लाखों लोगों की हत्याओं और गृहयुद्धों का कारण वामपंथ ने हमारी मातृशक्ति के माध्यम से हमारे घर को संघर्ष का अड्डा बना दिया और हम समानता का झुनझुना लेकर मानवता के मेले में हक्के-बक्के रह गए। इनका असली एजेंडा पारिवारिक मूल्यों को नष्ट कर समाज में संघर्ष पैदा करना है। जब परिवार टूटते हैं, तो व्यक्ति कमजोर होता है और सरकार पर अधिक निर्भर हो जाता है—यही साम्यवाद की रणनीति रही है। आज, नारीवाद भी इसी दिशा में बढ़ रहा है, जहाँ पुरुषों को झूठे मामलों में फँसाकर उनका मानसिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण किया जा रहा है।

Feminism, international women's day

अब यह स्पष्ट हो चुका है कि नारीवाद केवल समानता की माँग नहीं, बल्कि समाज में कृत्रिम टकराव और असंतुलन पैदा कर रहा है। यदि इस विचारधारा पर पुनर्विचार नहीं किया गया, तो यह सामाजिक विघटन को और गहरा करेगा, जिसका खामियाजा पूरा देश भुगतेगा। यही समय है कि हम नारीवाद के जाल से बाहर निकलकर मातृशक्ति और सांस्कृतिक मूल्यों की ओर लौटें।

भारत में नारी को सदियों से "मातृशक्ति" के रूप में देखा गया है। यहाँ महिलाएँ केवल समानता की माँग तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समाज को दिशा देने वाली शक्ति भी हैं। देवी दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी के रूप में नारी शक्ति, ज्ञान और समृद्धि की प्रतीक रही हैं। लेकिन यह शक्ति केवल संघर्ष या पुरुषों के विरोध में नहीं, बल्कि समाज और परिवार को संतुलित करने के लिए है। इसके विपरीत, नारीवाद महिलाओं को पुरुषों के विरोध में खड़ा करता है और समाज में टकराव की स्थिति उत्पन्न करता है।

मातृशक्ति परिवार को जोड़ती है, जबकि नारीवाद उसे तोड़ता है। नारीवाद जहाँ स्त्री को पुरुष के खिलाफ खड़ा करके संघर्ष की स्थिति पैदा करता है, वहीं मातृशक्ति समाज को एकीकृत करने का कार्य करती है। हमारे इतिहास में सीता, सावित्री और झाँसी की रानी जैसी महिलाओं ने केवल अपने व्यक्तिगत अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए संघर्ष किया। मातृशक्ति का यही गुण उसे अधिक व्यापक और समाजोपयोगी बनाता है। नारीवाद जहाँ केवल "अधिकारों" की बात करता है, वहीं भारतीय संस्कृति "कर्तव्य" को प्राथमिकता देती है। जब कोई समाज अपने कर्तव्यों को समझता है और उनका पालन करता है, तभी वहाँ वास्तविक संतुलन बना रहता है। मातृशक्ति केवल अपने अधिकारों की माँग नहीं करती, बल्कि समाज के प्रति अपने दायित्व को भी निभाती है।

मातृशक्ति शक्ति और करुणा का अद्भुत संतुलन प्रस्तुत करती है। जहाँ पश्चिमी नारीवाद संघर्ष और विद्रोह पर केंद्रित है, वहीं मातृशक्ति सृजन और सहयोग की भावना पर आधारित है। वह पुरुषों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के बजाय समाज के समग्र उत्थान की सोच रखती है। मातृशक्ति केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज और संस्कृति के लिए कार्य करती है। यही कारण है कि भारतीय समाज के लिए मातृशक्ति का विचार अधिक उपयुक्त और टिकाऊ है।

यदि हमें समाज में नारीवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों से बचना है, तो हमें मातृशक्ति को पुनः स्थापित करना होगा। नारी केवल अधिकारों की अधिकारी नहीं, बल्कि समाज और परिवार को सशक्त करने वाली शक्ति भी है। माता-पिता को अपनी बेटे-बेटियों को केवल स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी और कर्तव्यों का भी बोध कराना चाहिए, ताकि वे समाज को जोड़ने वाली शक्ति बनें। ‘अबला नारी’ या ‘लेडिज फर्स्ट’ जैसा विमर्श समाजहित में कितना सही है, इस पर विचार करना ही चाहिए अन्यथा समाज की चित्ति में भयंकर परिवर्तन अवश्यंभावी है जो बहुत बड़े आंतरिक संघर्ष में बदल जाएगा। समाजिक स्तर पर जो संघर्ष है, उससे भी भयंकर परिस्थितियाँ तब उत्पन्न होती हैं जब दो प्रियजनों के बीच संघर्ष हो—जहाँ भावनाएँ तीव्र होती हैं, संबंध दांव पर लगे होते हैं, और हर शब्द, हर निर्णय, रिश्तों को या तो बचा सकता है या फिर हमेशा के लिए तोड़ सकता है। तलाक संबंधित तथ्यों का विश्लेषण चिंता का बड़ी लकीरें खींच चुका है। साथ ही पुरुषों के अधिकारों की रक्षा भी आवश्यक है। झूठे आरोपों और कानूनी दुरुपयोग के कारण कई निर्दोष पुरुष मानसिक तनाव और आत्महत्याओं का शिकार हो रहे हैं। हमें ऐसे कानूनों की माँग करनी चाहिए जो महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों के लिए भी न्यायसंगत हों, ताकि किसी के साथ अन्याय न हो। परिवार की महत्ता को समझना अत्यधिक आवश्यक है। परिवार हमारे समाज की प्राथमिक ईकाई है। नारीवाद ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा देकर रिश्तों को कमजोर किया है, जबकि भारतीय संस्कृति परिवार आधारित समाज को महत्व देती है। हमें पारिवारिक मूल्यों को मजबूत करते हुए पुरुष और महिला को प्रतिद्वंद्वी के बजाय पूरक के रूप में देखना चाहिए। मीडिया और शिक्षा में संतुलन आवश्यक है। एकतरफा विमर्श के कारण पुरुषों को उत्पीड़क और महिलाओं को पीड़ित दिखाया जा रहा है, जिससे समाज में असंतुलन बढ़ रहा है। हमें यह समझना होगा कि नारी केवल "पुरुष-विरोधी" नहीं, बल्कि समाज को संवारने वाली शक्ति है।

आज, जब नारीवाद के नाम पर समाज को बाँटा जा रहा है, तब हमें भारतीय दृष्टिकोण से इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है। हमें केवल "समानता" की लड़ाई नहीं लड़नी, बल्कि "संतुलन" की ओर बढ़ना होगा।भारत में महिलाओं को हमेशा से सम्मान दिया जाता रहा है, लेकिन यह सम्मान उनकी मातृशक्ति के कारण था, न कि केवल कानूनी अधिकारों के कारण। यदि हमें एक सशक्त समाज बनाना है, तो हमें नारीवाद से आगे बढ़कर मातृशक्ति की ओर लौटना होगा। नारीवाद संघर्ष सिखाता है, मातृशक्ति समाज को जोड़ती है। अब यह हमें तय करना है कि हमें किस दिशा में जाना है।

 

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दैनिक स्वदेश में 9 मार्च 2025 को प्रकाशित।

 


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